उस्लूब*, उस्लूब, उस्लूब
क्या पढ़ने वाले इनको समझते हैं
वज़नी हो सीने पर गर ज़ख़्म
उसे पढ़ने वाले दर्द को समझते हैं
* लेखन के नियम अथवा शैली
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
उस्लूब*, उस्लूब, उस्लूब
क्या पढ़ने वाले इनको समझते हैं
वज़नी हो सीने पर गर ज़ख़्म
उसे पढ़ने वाले दर्द को समझते हैं
* लेखन के नियम अथवा शैली
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
5 replies on “उस्लूब, उस्लूब, उस्लूब”
कुछ पल्ले नहीं पडा .
ख़ास ‘विवेक’ के लिए उपरोक्त रचना का भावार्थ दे रहा हूँ:
भावार्थ: गीत, ग़ज़ल, कविता आदि कुछ भी लिखो साधारण मन कभी उसकी शैली नहीं समझता, उसमें निहित भाव को समझता है। जिस प्रकार से मन की चोट पढ़ने वाला व्यक्ति दर्द की परिभाषा समझता है।
वज़नी हो सीने पर गर ज़ख़्म
उसे पढ़ने वाले दर्द को समझते हैं
“very painful expression, liked it’
regards
vinay ji ,kya baat kahi hai dil ko chhu gaya
प्रिंस राणा जी धन्यवाद!