उठता है वक़्त का धुँआ
मैं कहाँ वह कहाँ
अजनबी-से मरासिम
आज बे-ख़ाब कहाँ
बीते हुए वक़्त के सफ़्हे
रहे ख़ामोश यह सफ़्हे
वह कहते किससे
रक़ाबी चाँद के किस्से
गहरे हुए रात के शिगाफ़
आने को सहर है
होंठों पे चाँद की मिसरी
मीठा ज़हर है
गाढ़ी-गाढ़ी नीदों में
कोई ख़ाब अटका हुआ है
कोरे सफ़्हे स्याही से
रोज़ चखते हैं हर्फ़ मेरे
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२