यह आलम आज तक ऐसा न था
कि पहले तुम-सा देखा न था
हम शहर की भीड़ में तन्हा थे
दूसरा कोई हम-सा तन्हा न था
मक़ामो-मंज़िल मेरी तुम थे
मगर हमने तुमसे कहा न था
वह नाज़ था या हुस्न की अदा थी
देखने वालों में कौन फ़िदा न था
हम किसे कहते तुम-सा हसीन
चाँद या आईना कोई तेरे जैसा न था
ढब प्यार का किस तरह आता
तुमसे पहले किसी को चाहा न था
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४