ज़िन्दगी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं तुम तक आ गया
सरे-राह मैं अपनी मंज़िल पा गया
चराग़ों का नूर हो, चश्मे-बद्दूर हो
तुम्हें देखकर दिल अँधेरों से दूर आ गया
ख़ुशियों के दीप जल उठे, ग़म सारे बुझ गये
पतझड़ उतरा, गुल शाख़-शाख़ खिल गये
इक-इक धड़कन में नाम तुम्हारा है
तुम्हारी मोहब्बत का जादू मुझपे छा गया
ख़ुशबू-ख़ुशबू मैंने तुमको पाया सनम
मोहब्बत में तेरी ख़ुद को मिटाया सनम
तेरी पहली नज़र से क़त्ल हुआ था मैं
लहू के हर क़तरे में तेरा प्यार समा गया
राज़ दिल के सभी आँखों से बयाँ कर दो
राहे-मुहब्बत मेरी तुम आसाँ कर दो
नहीं कोई अरमाँ तेरी चाहत के सिवा
बस तेरा ही चेहरा दिलो-दिमाग़ पे छा गया
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
2 replies on “ज़िन्दगी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मैं तुम तक आ गया”
मन पर तुरंत प्रभाव छोड़ने वाली मौलिक ‘सुंदर तथा आत्म मुग्ध करती रचना जिसको पढ़ते ही पाठक भाव विभोर होकर अतीत से सम्बन्ध तोड़ एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत हो जाय तथा साहित्य की गहराई में जाकर मन की वीरानी दूर करले उसके दिल में कोई विचार उठने लगें जैसे मेरे दीन दुखी का दयनीय दृश्य देख कर बोले इसके लिए एक प्रेमपत्र चाहिए, जैसे मोहब्बत में खुशबू के ज़िक्र वास्ते शब्दों के वदले कहे की इत्र चाहिए, राहें मंजिल नूर दीप धड़कन ग़म इनके वास्ते भी इश्क की ही नज़र चाहिए, जिंदगी चाहत है चाहत के सिवा कुछ भी नहीं ऐसी चाहत पूरी करने एक मित्र चाहिए
शुक्रिया से बेहतर भी कुछ् हो तो बतायें!