ख़ामोश सदाओं से कोई बुलाये मुझको
बड़े दिन हुए कोई रुलाये मुझको
अपना अब कहूँ किसे कोई नहीं मेरा
ख़ुशी न सही दर्द ही अपनाये मुझको
मेरा वुजूद कुछ नहीं है यार के बिना
उससे मसीहा कोई मिलाये मुझको
जवानी में है दिल को बचपन-सी ज़िद
यह बात दोस्त कोई समझाये मुझको
मैंने कर ली है शराबो-साक़ी से तौबा
अब निगाहों से कोई पिलाये मुझको
वह रुसवा हुआ ऐसा कि फिर लौटा नहीं
इसका सबब कोई समझाये मुझको
उठ रहा है तूफ़ान बेहिस होकर
क्यों न तमन्ना कोई सताये मुझको
कहा तो था और कैसे कहूँ कि प्यार है
क़रीब वह कैसे आये कोई बताये मुझको
बारहा वह खींचता है अपनी जानिब
इस कशिश से कोई बचाये मुझको
मुझे उसका ग़म उम्रभर रहेगा
दूसरे दर्द भी कोई पिलाये मुझको
वह कहता है हर हर्फ़ का अक्स हो
क्या ज़रूरत है कोई समझाये मुझको
वह ख़ुद कभी कुछ कहता नहीं है
ख़ुदा की मर्ज़ी कोई सुनाये मुझको
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००६-२००७
3 replies on “ख़ामोश सदाओं से कोई बुलाये मुझको”
Vah Vah Maza aa Gaya
मेरा वुजूद कुछ नहीं है यार के बिना
उससे मसीहा कोई मिलाये मुझको
aapa
shishu
Welcome Shishu…
very very nice.