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मेरी ग़ज़ल

सहर-ब-सहर मैं ढूँढ़ता रहा शुआएँ

सहर-ब-सहर1 मैं ढूँढ़ता रहा शुआएँ2
कहाँ छिप गयीं नूर-सी रोशन निगाहें

न कोई घर रहा मेरा न कोई ठिकाना
मेरी मंज़िल तो बन गयीं अब ये राहें

है जो दर्द सो अब तन्हाई से है मुझे
असरकार हों, कुछ काम आयें दुआएँ3

न दोस्त न नासेह4 न चारागर5 न वाइज़6
कोई भी नहीं लेता अपने सर ये बलाएँ

जो जाते हैं अपना दामन छुड़ा के ‘नज़र’
कह दो कि जाते हैं तो सब कुछ ले जाएँ

शब्दार्थ:
1. एक सुबह से अगली सुबह तक, 2. किरण, 3. प्रार्थनाएँ, 4. नसीहत करने वाला, 5. इलाज करने वाला, 6. बुद्धिमान


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४

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मेरी ग़ज़ल

तेरे चेहरे पर ज़ुल्फ़ उड़ी तो शाम हुई

तेरे चेहरे पर ज़ुल्फ़ उड़ी तो शाम हुई
मेरी ख़ुशियों का मुझसे इंतकाम हुई

फ़ज़िरो-शाम1 तेरी उम्मीद’ तेरा तस्व्वुर2
तेरी यादों में यह शब3 भी तमाम हुई

मेरी मोहब्बत का यही होना था हश्र4
हर गली हर कूचा5 बहुत बदनाम हुई

भड़कने दो तुम तजुर्बों के शोले को
ज़ीस्त6 रोज़गार7 से यूँ ही बेदाम8 हुई

वो तेरा ज़ीस्त से लाग क्या हुआ ‘नज़र’
इक थी ज़िन्दगी’ सो उसके नाम हुई

शब्दार्थ:
1. सुबह और शाम, 2. ख़्याल, 3. रात, 4. अंजाम, 5. गली, 6. ज़िन्दगी, 7. दुनिया, 8. जाल से मुक्त


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४

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मेरी ग़ज़ल

कैसे मिलूँ तुमसे जो न मिलना चाहो

कैसे मिलूँ तुमसे जो न मिलना चाहो
चला चलूँ अगर साथ चलना चाहो

नहीं कहते हो मुझ से हर बार तुम
करूँ क्या’ जो तुम ख़ुद जलना चाहो

मैं मसख़रा ही सही तुम तो गुल हो
तुमको हँसा दूँ जो तुम खिलना चाहो

देख लो मेरी दीवानगी एक बार तुम
बिखेरो मुझे’ जो तुम संभलना चाहो

शब्दार्थ:
मसख़रा: clown, joker, मज़ाकिया


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४

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मेरी ग़ज़ल

तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है

तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है
रह-रहकर रुक-रुककर बार-बार उठती है

हम बीमारि-ए-इश्क़ के मारे हुए हैं और
तेरी नज़र पैनी हो कर बार-बार उठती है

नाज़ो-नख़्वत1 के पैमाने किस तरह उठाऊँ
नज़र उठती है तो ज़िबह2 को यार उठती है

हम देखते हैं तेरे जानिब3 प्यार की नज़र से
तेरी नज़र, उफ़! मानिन्दे-कटार4 उठती है

ग़ैर से तुम को मोहब्बत हुई है बे-वजह
और फिर भी नज़र बाइसे-गुफ़्तार5 उठती है

हैं चमन में और भी नज़ारे ऐ ‘नज़र’ लेकिन
फिर क्यों तेरी नज़र सिम्ते-यार6 उठती है

शब्दार्थ:
1. नाज़ और नख़रे; 2. लड़ाई, क़त्ल; 3. ओर, तरफ़; 4. तलवार की तरह (आवाज़ करती हुई); 5. बात करने के लिए; 6. प्रेयसी की तरफ़


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४

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मेरी ग़ज़ल

दाग़े-शबे-हिज्राँ बुझाये नहीं बुझते

दाग़े-शबे-हिज्राँ बुझाये नहीं बुझते
आँसू बहते हैं इतना छुपाये नहीं छिपते

होता है कभी, शाम आती है चाँद नहीं आता
मरासिम हम से यूँ निभाये नहीं निभते

ख़ुदा के आस्ताँ पे आज भी सर झुकाये हूँ
मगर दाग़े-दिल उसे दिखाये नहीं दिखते

हैं जो हमको ज़ख़्म’ सो तेरे तस्व्वुर से हैं
यह ज़ख़्म सीने से मिटाये नहीं मिटते


शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४