तन्हाई के उजाले की मिसरी जो ज़ुबाँ पर रखी
दिल की सारी गर्द उतर गयी,
तन्हा जो चला साथ खु़द के दो क़दम
मेरी इक उम्र खा़मोशी में गुज़र गयी…
उफ़क़ के किनारों पर इसलिए बैठा हुआ था
कि कभी तो सूरज ग़ुरूर होगा,
मगर ऐसा हुआ नहीं…
इक दोपहर के बिना ही शफ़क़ ढलने लगी,
इसका भी कोई सबब ज़रूर होगा…
अँधेरों की चादर ने मुझे इस क़दर कसा हुआ है
कि मुझे कालख के सिवा कुछ नहीं दिखता,
कभी जो दूर कहकशाँ नज़र आये भी तो
मैं उससे कोई लम्सो-रब्त नहीं रखता…
कुछ पुरज़े मेरी दोस्ती के उड़ रहे थे
तनहाई की आँधी के साथ-साथ,
मगर मैंने गदेली की वो लकीर चुनी ही नहीं
जिससे जुड़ सकता था मेरा हाथ…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३