मुझको तुमसा कोई न मिला
आँसुओं से आँखों का आईना धुला
ज़हन के दरवाज़ों पर टहलता रहा
कोई सारी-सारी रात,
मेरी आँख जो खुली तो…
मैं झुलस गया
तमाम बरस इक खा़ब के लिए
आँखें गड़ाए बैठा रहा मैं,
मेरी आँखों से
यह परदा भी सरक गया
उजली-उजली रात भी
इक अंधा कमरा लगी
मैं जब भी बाहर निकला,
पाँव चौखट से टकरा गया
चाँद ने भी अब्र को…
अपने चेहरे का पर्दा बना लिया,
मैं तड़पता रहा ताउम्र
वो न आया जो इक बार गया
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३