आज राह चलते-चलते
इक आईने में अपना अक्स देखा
बड़ा ग़ुरूर था मुझे खु़द पर
न मैंने अपने अंदर का नक्स देखा
आईने ने बताया मेरा चेहरा क्या है
जान पाया आज मैं,
साँझ क्या है सवेरा क्या है…
उम्मीद कर रहा था जिसकी
वह असलीयत खुलकर सामने आयी
रूह ने मेरी…
आज सारी रात, मुझसे खू़ब बातें कीं
कि मुझको थामने आयी…
कमस-कम आज यह तो जाना
शक़्ल का नक़ाब अक़्ल को
किस तरह ढक लेता है,
अब कोई न ग़ुरूर होगा और न कोई ग़लती…
आज की रात आँखों से आँसू न बहे,
नींद बह गयी…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३