मैं खा़क़सार था उसने मुझको माटी समझा
मुझे उम्मीद रही वो मुझको
सोने की तरह छूकर देखेगा…
उसने कुछ तो किया अपनेपन-सा
और बेग़ाना बनकर भी दिखाया
वो चल तो रहा था साथ-साथ मेरे
मगर उसने थोड़ा नाज़ भी दिखाया
शिक़स्त के पहरे मुझ पर बहुत कड़े हैं
कि मैं कभी जीता भी और हारा भी
मेरे पहलू में बैठे है दोनों –
शाम का सूरज और सुनहरा चाँद
मैंने इक को जलाया और इक को बुझाया भी
सूनी शाख़ें मुझको बहुत हसीन लगने लगीं,
उसने पत्तों को इस क़दर ज़मीं पर गिराया…
मैं खा़क़सार था उसने मुझको माटी समझा
उसका जी बहुत अजीब है
सिर्फ़ अपनी ही सुनता है
मुझको पास बुलाके वो मुझसे दूर गया भी
जाने क्यों वह मुझे
अपनों के सामने अपना समझा
ग़ैरों के सामने तो
वो मेरी तरफ़ देखता भी नहीं
अजब हाल करके रखा है उसने मेरा
कभी खा़ब में खु़द आया कभी मुझको बुलाया…
मैं खा़क़सार था उसने मुझको माटी समझा
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३