“हम तो जब भी किसी को चाहेंगे
आईनें में खु़द को देखकर चाहेंगे
हम अपने दिल को परेशाँ कर भी लें
पर किस तरह इज़हार कर पायेंगे”
इक बार दिल को परेशाँ करके देखा था
जब तक हौसला बुलन्द कर पाया,
सिर्फ़ उसने मकान ही न बदला
शहर भी बदल लिया था
रह-रह के उसका ही ज़िक्र आता है
मेरे किसी न किसी अफ़साने में…
जब कोई साथ नहीं होता है
और दिल मेरा उदास होता है,
तेरे ही आस-पास भटकता हूँ
तेरे ही आस-पास रह्ता हूँ
बहुत ही ग़मगीन बहुत ही शामीन
गुज़री आज की शाम ‘विनय’
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३