गर है तो क्यों तेरी बातों में बनावट है
किसलिए यह मुझसे तेरी झूठी लगावट है
ग़ैर की महफ़िल में उफ़! तेरे अंदाज़े-ख़म1
मुआ2 है उदू3 सरापा कैसी सजावट है
सद-अफ़सोस4 क्यों नौ-जवाँ5 हैं मेरे ख़ातिर6 में
तेरे दिल में जज़्बों की कैसी मिलावट है
सीमाब7 है लहू में दौड़ता सच्चा इश्क़
यूँ फ़िराक़8 से धड़कनों में मेरी गिरावट है
फिर वही शाम है और है आँखों में नमी
नमी कहाँ है यह तो लहू की तरावट है
पढ़ते हैं महफ़िल में किसी ग़ैर के अशआर9
बताते हैं कि पुरज़े10 पे मेरी लिखावट है
मैं नाचार हूँ दिल की वादा ख़िलाफ़ी से
वरना अब इख़लास11 में कैसी रुकावट है
एक जुनून दबाकर सुकूँ पाया है तूने
फ़िजूल12 आज ऐसी बातों की दिखावट है
वाइज़13 की मान ली इसलिए यह हश्र हुआ
हरे हैं घाव शायद काई की जमावट है
ऐन वक़्त अपनी बातों से मुकर गये तुम
क्यों शर्मिन्दगी से आँखों की झुकावट है
शब्दार्थ:
1. उड़ती हुई ज़ुल्फ़ों का अंदाज़, 2. मृत, 3. शत्रु, 3. सौ ग्लानियाँ, 4. नयी यौवन, 5. दिल, हृदय, 6. भारी, 7. दूरी, 8. शे’र का बहुवचन, 9. काग़ज़ के टुकड़े, 10. दोस्ती, 11. व्यर्थ, 12. बुद्धिजीवी
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३/२०११