आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले
बहारों के मौसम में
ख़ुशबू वाले गुल हैं खिले
फूलो से ख़ुशबुएँ आती हैं
साँसों में महक जाती हैं
ऐसे तू दिल में आती है
साँसों में महक जाती है
मुझको दीवाना कर जाती है
सखी तू बहुत याद आती है
आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…
रात और दिन तुमको ही सोचता हूँ
अपने ख़ाबों में तुमको ही चाहता हूँ
मंज़िल है मेरी तू ही
दिल की हसरतों को बढ़ने से रोकता हूँ
बस एक है तू ही
जिसे ज़िन्दगी से ज़्यादा चाहता हूँ…
आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…
तूने इक नज़र मुझको देखकर
दिल पर ऐसा किया कुछ असर
दिल हो गया ख़ुद से बेख़बर
दिल चाहे तू बने मेरी हमसफ़र
सुन ले मेरी धड़कनों की सदा
जाने-जिगर ओ मेरी हमनज़र
आ सखी मिलके गले
मिटा लें हम अपने गिले…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२