हूँ अकेला मैं यहाँ
तेरी यादों में तरसता हुआ
तेरी तलाश में
दर-ब-दर भटकता हुआ
दर्द दिल में जागा है
मैंने रब से तुझे माँगा है
दिल है तू जान भी तू है
मेरा अरमान भी तू है…
बुझे मौसम बहारों के
उगे निशाँ पाषाणों के
खोयी हुई हर दिशा है
जागी हुई हर निशा है…
फूलों के बाग़ीचों से
तेरी आहटें आती हैं
कानों के क़रीब से मीठी
सरसराटें जाती हैं…
कह रही हैं कुछ ये हवाएँ
साँसों में घुल रही हैं ख़ुशबुएँ
तेरी क़सम अब फासला नहीं
अब देरी नहीं दूरी नहीं…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२