कोई जो कहे चलो साथ दो क़दम
तो हम कहें ठहरों ज़रा भर ले दम
जाने कितनी आड़ी-टेढ़ी राह होगी
जहाँ कहेगा दिल वहीं छाँह होगी
सफ़र में पानी को तरस जायेंगे
बादल वो न बरसेंगे जिन्हें बुलायेंगे
फ़ुर्सत का लम्हा यूँ गुज़ारा है
आया वही मौसम लौटकर दोबारा है
खिलें हैं क्यारी में रंग और रोशनी
यह चाँद के बुझने का इशारा है
कोई जो कहे आसमाँ है ख़ाब-सा नीला
तो हम कहें यह है मिट्टी का टीला
मीठा-मीठा-सा फीका-फीका-सा
आब में गला हुआ आग से जला हुआ
ऐसा मेरा एक बिछड़ा ख़ाब था
मेरा दिल कभी दर्द से आज़ाद था
कोई जो कहे शाख़ों पे रंग आये हैं
तो हम कहें काग़ज़ के फूल सजाये हैं
कभी ख़ुशियों का कभी आँसुओं का
वह निथरता हुआ एहसास था
सितारों से सजी चादर में जैसे
कहीं पर चाँद का सफ़ेद दाग़ था
कोई जो कहे आसमाँ है ख़ाब-सा नीला
तो हम कहें यह है मिट्टी का टीला
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२