शाम जब ढलने लगती है
हवा जब बहने लगती है
कान कुछ शोर रखते हैं
आँखें कुछ बातें करती हैं
तब मैं कुछ ढूँढ़ता हूँ
और साँसें शोर करती है
शाम जब ढलने लगती है
हवा जब बहने लगती है
कोई आहट-सी सुनता हूँ
कुछ महसूस करता हूँ
कोई आया था सच है
आज तक जिसे याद करता हूँ
शाम जब ढलने लगती है
हवा जब बहने लगती है
हर लम्हा इन्तज़ार होता है
कुछ मिलता है कुछ खोता है
यह शाम ढलती नहीं है
बस कोई काँच-सा टूटता है
शाम जब ढलने लगती है
हवा जब बहने लगती है
कान कुछ शोर रखते हैं
आँखें कुछ बातें करती हैं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२