राहों में ढूँढ़ता हूँ कभी
तुम मिलती नहीं यह भी सही
जानो न जानो प्यार क्या
है यह इक नशा-सा
उतरता नहीं आँखों से पलकों पर भी
चाहता है दिल यह, पास तुम रहो
कोई तस्वीर जो आँखों में
छुपाकर रखी थी
समझता नहीं क्यों मैं
कि वह हक़ीक़त हो नहीं सकती
राहों में ढूँढ़ता हूँ कभी
तुम मिलती नहीं यह भी सही
इक़रार है ज़ुबाँ पर
क्या करूँ दिल राज़ी नहीं
हो रहा जो अभी
पहले ऐसा कभी हुआ नहीं
सपनों पर अपने अब यक़ीं रहा नहीं
क्या करूँ अभी वह मैं जानता नहीं
इक सवाल है दिल में मेरे
जो कभी तुम मिलो
तो पूछ लूँगा तुम्हीं से हमनशीं
क्या तुम मिलोगी मुझसे कभी
राहों में ढूँढ़ता हूँ कभी
तुम मिलती नहीं यह भी सही
आ जाओ यहाँ तुम तोड़कर बन्धन
तेरा इन्तिज़ार करता हूँ
समझता था जो पहले वह था ग़लत
जब तुम नज़रों में समाये
तब जाके जाना क्या ग़लत क्या सही
राहों में ढूँढ़ता हूँ कभी
तुम मिलती नहीं यह भी सही…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९
One reply on “राहों में ढूँढ़ता हूँ कभी”
अच्छी रचना है। पुराने दिन याद आ गये पढ़कर।