जानते हैं दर्द बुझते हुए चाँद का
जब बढ़ते आते हैं सुबह के क़दम
जुस्त-जू की छाया खो जाती है कहीं
चाँद से बिछड़कर तन्हा हुए हम
तेरा एहसास था कभी दिल के पास
तू क्यूँ तोड़ गया जीने की हर आस
नहीं थी उन गुलों में ख़ुशबू ज़रा भी
वह भीगे हुए गुल थे जैसे पलाश
जुस्त-जू की छाया खो जाती है कहीं
चाँद से बिछड़कर तन्हा हुए हम
तन पर मद्धम-मद्धम धूप गिरती है
लॉन में कुर्सी डालकर बैठे हैं हम
याद आते हैं सुस्त दिन सर्दियों के
जब तुझे हँसते देखा करते थे हम
जुस्त-जू की छाया खो जाती है कहीं
चाँद से बिछड़कर तन्हा हुए हम
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९