यह बीते हुए लम्हों का शोर है
या तन्हाई के ग़म की ख़ामोशी
दिल को कुछ शोर जान पड़ता है
मगर वह कानों में क्यों नहीं
उसने इजाज़त नहीं दी है हमें
उन लम्हों को दोबारा पढ़ने की
गुज़रें है वह कभी इधर से
यह बात भुला देने भूलने की
मेरे दरवाज़े तक राह आती है
मगर खुलती है कहीं और यह
समझाते हैं कभी ख़ुद को हम
या भुला देते हैं भूल जाते हैं
यह बीते हुए लम्हों का शोर है
या तन्हाई के ग़म की ख़ामोशी
दिल को कुछ शोर जान पड़ता है
मगर वह कानों में क्यों नहीं
हम खोलते हैं उन पन्नों को
जिन पर तेरा नाम लिखा था
उड़ जाता है दिल से दर्द वह
जो ख़ुद कभी ख़ुद में सना था
क़ातिल वह मेरे दिल का होगा
कब यह हमसे उसने कहा था
खुल जायेगा वह ज़ख़्म फिर से
जो हमने मुद्दत में सिला था
यह बीते हुए लम्हों का शोर है
या तन्हाई के ग़म की ख़ामोशी
दिल को कुछ शोर जान पड़ता है
मगर वह कानों में क्यों नहीं
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९