टूटे हुए चाँद को सादे काग़ज़ में लपेटा मैंने
भीगे हुए सूरज को हथेलियों में समेटा मैंने
तारे बसरने लगे और आसमाँ ख़ाली हो गया
उसने एक आइने की तरह मुझे तोड़ दिया है
…तोड़ दिया है
जला दिये दिल के जज़्बात उसने
बढ़ा दिये मेरे मुश्किलात उसने
जीना मेरा जीना बहुत मुश्किल है
यह ज़हर पीना बहुत मुश्किल है
बहार में भी शाख़ों पर ख़िज़ाँ थी
सूखी-सूखी बंजर हर फ़िज़ा थी
फ़िज़ाएँ रंग बदलने लगी हैं
हवाओं के साथ चलने लगी हैं मगर
उसने निगाहों में खिलना छोड़ दिया है
…छोड़ दिया है
फ़िज़ाएँ मौसम के साथ खिलती हैं
और मौसम बदलते रहते हैं
मौसम बदला है तो फ़िज़ा भी बदलेगी
बदले हुए मौसम ने हज़ार रास्तों को
मेरी तरफ़ मोड़ दिया है, मोड़ दिया है
…मोड़ दिया है
शब्दों की स्याही में रिश्ते हैं
फूलों के अर्क़ में रिश्ते हैं
हर शब्द हर फूल में मिलते हैं
हर जिस्म की शाखों पर खिलते हैं
मिलते हैं बिछुड़ते हैं,
बिछुड़ते हैं मिलते हैं
समंदर की लहर जैसे चलते रहते हैं
खिलते हैं महकते हैं
बनते हैं बुझते हैं
यह धूप-छाँव के जैसे रंग बदलते हैं
उसने एक रिश्ता तोड़ा है इक जोड़ दिया है
जोड़कर उसने रिश्ते को फिर तोड़ दिया है
…तोड़ दिया है
जला दिये दिल के जज़्बात उसने
बढ़ा दिये मेरे मुश्किलात उसने
जीना मेरा जीना बहुत मुश्किल है
यह ज़हर पीना बहुत मुश्किल है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९ अप्रैल २००३
2 replies on “टूटे हुए चाँद को”
टूटे हुए चाँद को सादे काग़ज़ में लपेटा मैंने
भीगे हुए सूरज को हथेलियों में समेटा मैंने
तारे बसरने लगे और आसमाँ ख़ाली हो गया
bahut sundar panktiyan hai,tuta chand aur bhiga suraj hm bahut achi abhivyakti hai.nice poem.
शुक्रगुज़ार हूँ कि आपको एक अरसे से मेरा कार्य पसन्द आ रहा है।