वह जो मेरे ज़ख़्म गिनता है
तो कहता है बस इतने ही!
ख़िज़ाँ आयी बहार लौट गयी
निशान रह गये इतने ही
उसने नज़र जो उठायी है
मिट गये दीवाने कितने ही
हमने ज़ख़्म जितने बुझाये हैं
सुलगाये हर साँस हैं उतने ही
अनाड़ी निकले सबके सब
तजुर्बेकार थे जितने ही
वक़्त ने बादशाह किया था
मिटा दिया उसे वक़्त ने ही
याद तुम आते रहना सदा
पास रहो क्यूँ न कितने ही
एक नन्हा-सा ख़ाब पास में
उंगली थामे बैठा है अपने ही
तख़्तपोश उसका ख़ुदा था
बरबाद किया उसे उसने ही
ऐ ‘नज़र’ वह हार गया है
जो लाता था मुदाम फ़ितने ही
ख़िज़ाँ= पतझड़, मुदाम= सदैव, फ़ितना= मुश्किलात, समस्याएँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३