तुम जो देखते हो मैं भी जानता हूँ
यह सब हुनर मैं भी जानता हूँ
यह ख़ाब कच्चे तागे-सा है मगर
सुबह टूट जायेगा मैं भी जानता हूँ
रोज़ दरगाह जाके दुआ करते हो
क्या माँगते हो मैं भी जानता हूँ
उम्र गुज़र नहीं सकती साथ में
इसका सबब मैं भी जानता हूँ
ख़ुदा भी अपना ईमान खोता है यहाँ
असूल दुनिया के मैं भी जानता हूँ
इन्सान आइना है तक़दीर का
क्यों टूट जाता है मैं भी जानता हूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३