आइने-आइने ख़ुद को ढूँढ़ा
उनमें उतर के ख़ुद को ढूँढ़ा
कहीं भी पूरा नहीं था,
मेरे जिस्म पे इश्क़ का चीरा नहीं था
ख़ाली-ख़ाली था सूना-सूना था
दिल मेरा, यह दिल मेरा…
आइने-आइने ख़ुद को ढूँढ़ा
उनमें उतर के ख़ुद को ढूँढ़ा
क़तरा-क़तरा हर एक क़तरा
ज़हन से कोई न उतरा,
मीठे-मीठे ज़हर के प्याले
मैं भी एक उम्र से गुज़रा…
आइने-आइने ख़ुद को ढूँढ़ा
उनमें उतर के ख़ुद को ढूँढ़ा
मैंने पहल नहीं की थी
मैं इस सब से परहेज़ रखता हूँ
कितने मीठे होते हैं अय्यार
मैं यह कब चखता हूँ…
आइने-आइने ख़ुद को ढूँढ़ा
उनमें उतर के ख़ुद को ढूँढ़ा
ऐसे अर्श पे कब था डेरा
उगता है जहाँ, चटखा सवेरा
तकलीफ़ तख़लीक़ होती रही
दिल में नहीं होता बसेरा…
आइने-आइने ख़ुद को ढूँढ़ा
उनमें उतर के ख़ुद को ढूँढ़ा
अय्यार= चालाक, clever; अर्श= आसमाँ, sky; तख़लीक़= उद्भव, creation
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४