आज की रात मेरे ख़ाबों के मकाँ पे
उस गहरे नीले आसमाँ पे
वह चाँद नहीं निकला
कि तुम आये थे
बे-नूर वह चाँद नूर देखता रहा
सारी रात नहीं निकला
कि तुम आये थे
हाथों में तितलियाँ
रख लीं हों जैसे
कुछ इस क़दर मुस्कुरा रहे थे
मैं किसी नज़्म के लिये
डूबा था जैसे
तुम इस क़दर रिझा रहे थे
जागा नहीं मैं पलभर को भी
आँखों में वह ख़ाब रख ली
कि तुम आये थे
गालों की वह गुलाबी रंगत हसीं
मुस्कुरा रही है आँखों में अब भी
कि तुम आये थे
तेरे लबों की सुर्ख़ पंखड़ियों ने
मेरे तंग रुएँ इस तरह गुदगुदाये
मेरे एहसास को यक़ीं हो गया
कि तुम आये थे
आठों पहर नहीं उतरा
तेरा चेहरा आँखों से मेरी
कि ख़ाब में आये थे
रश्क़ करता रहा हमसे चाँद रातभर
कि तुम आये थे
आज की रात मेरे ख़ाबों के मकाँ पे
उस गहरे नीले आसमाँ पे
वह चाँद नहीं निकला
कि तुम आये थे
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२