और दाँव अपनी जाँ का किसने लगाया होगा
फिर इश्क़ ने फ़रहाद कोई बुलाया होगा
यूँ ही नहीं बिगड़ता है कोई किसी बात पे
तुमने ज़रूर नमक में छालों को गलाया होगा
इक मेरे’ कौन दूसरा दुनिया में तन्हा है
तुमसे ऐसा रिश्ता भला किसने निभाया होगा
न कोई आहट है ‘नज़र’ न कोई ख़बर है
क़ासिद ने ग़लत दरवाज़ा खटखटाया होगा
क़ासिद= messenger
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३
One reply on “और दाँव अपनी जाँ का”
कोई आहट न ख़बर पर से याद आया कोई आना तो चाहता है लेकिन उसे ऐसा लगने लगता है
उठे ===उठ कर चले ==चल कर रुके ==रुक कर कहा होगा
हमीं क्यों जायें; बहुत हैं उनकी हालत देखने वाले…