दाग़े-शबे-हिज्राँ बुझाये नहीं बुझते
आँसू बहते हैं इतना छुपाये नहीं छिपते
होता है कभी, शाम आती है चाँद नहीं आता
मरासिम हम से यूँ निभाये नहीं निभते
ख़ुदा के आस्ताँ पे आज भी सर झुकाये हूँ
मगर दाग़े-दिल उसे दिखाये नहीं दिखते
हैं जो हमको ज़ख़्म’ सो तेरे तस्व्वुर से हैं
यह ज़ख़्म सीने से मिटाये नहीं मिटते
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
9 replies on “दाग़े-शबे-हिज्राँ बुझाये नहीं बुझते”
behad khubsurat likha hai bhai sahab……….
arsh
ख़ुदा के आस्ताँ पे आज भी सर झुकाये हूँ
मगर दाग़े-दिल उसे दिखाये नहीं दिखते
लाजवाब लिखा है भाई.
धन्यवाद
नजर साहब की गजल पढवाने के लिए आभार।
नजर साहब की गजल पढवाने का शुक्रिया।
सुन्दर भाव, खूबसूरत गजल।
Good morng. Vinay ji
हैं जो हमको ज़ख़्म’ सो तेरे तस्व्वुर से हैं
यह ज़ख़्म सीने से मिटाये नहीं मिटते
Bahut khubsurat or dard bhari gazal likhi aapny. Or ha hamary blogs pe visit karny or comment ke liye aap ka sukriya.
Vinay ji plz batay ki kya hindi cafe me Mangal font hi work karta hia hum kruti dev par type kar patey hai mangal par nahi ho pa raha hai. Kuch help kary plz.
maine aapko mail likh diya hai, check kar lein.
aap sabhi ka dhanyawad!