गिर जायेगा इस बरसात में घर
तुम हो उधर हम हैं इधर
जंगल ही जंगल है सब वीराना-सा
जिस सिम्त दौड़ती है नज़र
न तुम हो मेहरबाँ न हक़ ही है
होता नहीं किसी पे दुआ का असर
ख़ाली दिल में साँसें बोझ लगती हैं
और मुसकुराये जाता है क़मर
अपनी मरज़ी के हम मालिक़ नहीं
तेरे कहे पे करते हैं सफ़र
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३