हर वो शख़्स जिसको मैंने अपना ख़ुदा कहा
बादे-मतलब उस ने मुझ से अलविदा कहा
जिसे मैं मानता हूँ धोख़ा-ओ-अय्यारी यारों
ज़माने ने उस को हुस्न की इक अदा कहा
वह प्यार जिस को एहसास कहते थे सभी
उसने आज उसको बदन की इक सदा कहा
मैं था उसके पीछे ज़माने की ग़ालियाँ खाकर
उस ने मुझे किसी ग़ैर हुस्न पर फ़िदा कहा
जिन आँखों का तअल्लुक मैं देता था मस्जिद से
उसे उस के यार ने महज़ इक मैक़दा कहा
मैं कहता था उससे अपने ज़ख़्मों की कहानी
उसने कुछ और नये ज़ख़्मों को तयशुदा कहा
सदा: पुकार, call; बादे-मतलब: मतलब पूरा होने के बाद, ; धोख़ा-ओ-अय्यारी: धोख़ा और चालाकी, cheating and cleverness; तअल्लुक: ताल्लुक, relation; मैकदा:शराबख़ाना, bar; तयशुदा:निश्चित, certain
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
5 replies on “हर वो शख़्स जिसको मैंने अपना ख़ुदा कहा”
जिसे मैं मानता हूँ धोख़ा-ओ-अय्यारी यारों
ज़माने ने उस को हुस्न की इक अदा कहा
वाह विनय भाई बहोत खूब कही आपने ये शे’र … आपको कैसे लगे ये मेरे दिल हालात की खबर …मतला भी कमाल का लिखा है अपने.. ढेरो बधाई जनाब…
अर्श
विनय जी,बहुत उम्दा गज़ल है।बधाई स्वीकारें।
अच्छी ग़ज़ल है…भाव सुन्दर हैं।
डा.रमा द्विवेदी
bahut achche vinay
kya khoob gajal khaee hai
सुप्रभात विनय जी,
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल आप को बधाई!