ज़िन्दगी से सौ ग़म एक खु़शी मिलती है
अब तक जितनी राहों से गुज़रा हूँ,
ग़म उठाता रहा हूँ…
रूह छिलती रही है मेरी…
सीने की तह में…
जाने कितने ही ज़ख़्मों के टूटे शीशे और
घावों के जंग खाये हुए लोहे के टुकड़े जमा हैं
ज़रा दम भर को करवट लेता हूँ तो…
जोंक की तरह से सारे सबातो-सुकूँ चूसने लगते हैं
पलकें आँच के ग़ुबार से जल उठती हैं
आँख खुश्क और खुश्क होती जाती है
आँसुओं का इक सैलाब-सा उमड़ पड़ता है यकायक
दरिया बहता ही रहता है
जब तक कोई आस उसे आकर पोंछ न दे…
और खु़शी वह तो यक़ीनन तुम्हीं से है…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४