ख़त आ चुका, मुझसे है वही ढंग अब तलक
वैसा ही मिरे नाम से है नंग1 अब तलक
देखे है मुझको अपनी गली में तो फिर मुझे
वैसी ही गालियाँ हैं, वही संग2 अब तलक
आलम से की है सुलह मगर एक मेरे साथ
झगड़े वही अबस के3, वही जंग अब तलक
सुनता है जिस जगह वो मिरा ज़िक्र एक बार
भागे है वाँ4 से लाख ही फ़रसंग5 अब तलक
‘सौदा’ निकल चुका है वो हंगामे-नाज़ से6
पर मुझसे है अदा का वही रंग अब तलक
शब्दार्थ:
1. शर्म 2. पत्थर 3. व्यर्थ 4. वहाँ 5. दूरी की एक इकाई 6. नखरे के दौर से
शायिर: मिर्ज़ा रफ़ी ‘सौदा’
6 replies on “ख़त आ चुका, मुझसे है वही ढंग अब तलक”
बौत उम्दा गज़ल प्रेषित की है।
क्या बात है, सभी शेर बहुत सुंदर.
धन्यवाद
आभार मिर्ज़ा रफ़ी ‘सौदा’ साहेब की गज़ल पढ़वाने का.
मिर्जा साहब की ग़ज़ल के क्या कहने बहोत ही खुबसूरत काफिया पढ़ने को मिला ढेरो बधाई आपको साहब…
अर्श
जनाब ‘सौदा’ साहेब की ग़ज़ल पढ़ कर मज़ा आगया। पढ़वाने के लिए बधाई।
आप सभी का शुक्रिया!