मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे
भीड़ बहुत थी
दूर तलक चादर थी धूप की
न शज़र न दरख़्त
दूर तक कोई साया न था
जिसकी ख़्वाहिश थी मुझे
एक वही न था
मेरी ज़िन्दगी में लोग बहुत थे…
साँस जैसे हलक़ से नीचे उतरती न थी
दिल जैसे धड़कता न था
सूखी हुई आँखों में रेत का दरया था
तस्वीरें बनाता था मैं
आँधियाँ जिनको मिटाती थी
था जिनसे मैं वाबस्ता
मगर वो मुझसे न थीं
मेरी ज़िन्दगी में भीड़ बहुत थी
लोग बहुत थे…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’