रोज़ ही होता है होंठों तक बात आते-आते रह जाती है
मेरी इक कमी तेरे रू-ब-रू मुझे लब खोलने नहीं देती
कितना मुश्किल है ख़ुद ही ग़लत होने का एहसास!
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
रोज़ ही होता है होंठों तक बात आते-आते रह जाती है
मेरी इक कमी तेरे रू-ब-रू मुझे लब खोलने नहीं देती
कितना मुश्किल है ख़ुद ही ग़लत होने का एहसास!
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
5 replies on “रोज़ ही होता है”
ye bhi khub raha ,umda lekhan ..,wah…….
बहुत बढीया लेख।
खूद गलत होने का एहसास सच मे बहुत मूश्किल होता है।
कितना मुश्किल है ख़ुद ही ग़लत होने का एहसास!
” lakin ek sach bhee to hai… or sach hmesha hee kadva hotta hai na”
Regards
Good…. really good
शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया!