तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है
रह-रहकर रुक-रुककर बार-बार उठती है
हम बीमारि-ए-इश्क़ के मारे हुए हैं और
तेरी नज़र पैनी हो कर बार-बार उठती है
नाज़ो-नख़्वत1 के पैमाने किस तरह उठाऊँ
नज़र उठती है तो ज़िबह2 को यार उठती है
हम देखते हैं तेरे जानिब3 प्यार की नज़र से
तेरी नज़र, उफ़! मानिन्दे-कटार4 उठती है
ग़ैर से तुम को मोहब्बत हुई है बे-वजह
और फिर भी नज़र बाइसे-गुफ़्तार5 उठती है
हैं चमन में और भी नज़ारे ऐ ‘नज़र’ लेकिन
फिर क्यों तेरी नज़र सिम्ते-यार6 उठती है
शब्दार्थ:
1. नाज़ और नख़रे; 2. लड़ाई, क़त्ल; 3. ओर, तरफ़; 4. तलवार की तरह (आवाज़ करती हुई); 5. बात करने के लिए; 6. प्रेयसी की तरफ़
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४
7 replies on “तेरी तीरे-नज़र किस अदा से यार उठती है”
bahot achhe……..
बेहतरीन गज़ल.
bahut sunder likha aapney badhaii
क्या बात है !!
सुभान अल्लाह
बहुत ही सुंदर, कटार से भी ज्यादा तेज
धन्यवाद
बहुत खूब कहा है।
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद!