टूटा हूँ छूटा हूँ
अकेला तन्हा रहता हूँ
कोई दोस्ताना कोई यराना
अब मैं रखता नहीं
मैंने देखा मैंने जाना
पर ख़ुद को पाया नहीं
एक आइना जो टूटा है
साँसों से गलता नहीं
मुझको यूँ ही लगता था
कि आसमाँ मिलता नहीं
टूटा हूँ छूटा हूँ
अकेला तन्हा रहता हूँ
दुनिया में लोग झूठे हैं
इसीलिए रिश्ते टूटे हैं
मौसम ये बदला है,
दिलों के बीच फासला है
झूठ ने दरवाज़े पे
फिर खटके लगाये हैं
काले-सफ़ेद-से
कुछ पर्दे गिराये हैं
टूटा हूँ छूटा हूँ
अकेला तन्हा रहता हूँ
रात है काली और दिन
बादलों से ढका हुआ है
दिल का आशियाँ भी
मेरी साँसों से बँधा है…
टूटा हूँ छूटा हूँ
अकेला तन्हा रहता हूँ
कोई दोस्ताना कोई यराना
अब मैं रखता नहीं…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२