सुबह ने भोर के बाद
मेरी खिड़कियाँ खटकायीं
शाम के जलते दिए ने भी
अपनी लौ बुझायी
मैं उठा अपने बिस्तर से
खोलकर देखा पल्ला
तो पाया –
मौसम बदल गया था
पर्वतों पे बर्फ़ का मौसम
कहीं-कहीं पर गल गया था
याद में था मेरी
कि मुझे आज कहीं जाना था
कल किया किसी दोस्त से वादा
मुझको निभाना था
ख़ाब टूटा तो पाया
पतझड़ आ चुका था
वो पुराना दोस्ताना
आज जंग खा चुका था
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २०००