दुनिया में अपनी हसरतों का मारा हुआ
शायद इक मैं ही हूँ
वरना तो उदासियों की भीड़ में
हर चेहरा खु़श ही नज़र आता है
चाहे वो खु़शी दर्द के चेहरे पर
कोई नक़ाब ही क्यों ना हो…
चलो खु़श तो है झूठे ही सही
इस झूठी खु़शी के बीच
उसे कोई न कोई इक पल खु़शी का
ज़ुरूर मिल ही जाता होगा
खु़शनसीब होते हैं ऐसे लोग
जिन्हें खु़शी का इक पल भी नसीब होता है
मुझे तो बस चाहत के बदले में
यह हसरतें मिलीं हैं
शायद इक रोज़ यह सीने में दफ़्न हो जायें
वरना मुझे तो दफ़्न होना ही है…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’