उदास दर्द तह से बुझने लगा है
मेरे दिल को अजनबी लगने लगा है
बोझल थीं सो आँखें पूरी खुल गयी हैं
घना कोहरा धीरे-धीरे छँटने लगा है
शाम आज मुझको आवाज़ नहीं देती
उसका मुझसे राबिता टूटने लगा है
मुद्दत से चाँद भी तन्हा दिखा नहीं
शायद उसका दिल बदलने लगा है
वक़्त कितना बदला किसपे ज़ाहिर है
खु़शी से दर्द का दिल दुखने लगा है
सहर के उफ़क़ मंज़िली इमारतों में खो गये
यह इन्तिज़ार भी मिटने लगा है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’