तस्कीं से दूर इक और राह निकल आया हूँ
मैं अपनी हर खु़शी ग़म से बदल आया हूँ
तुम चाहो तो तुम्हारे चाहने भर से क्या हो
हूँ वो पत्थर जो न किसी आग से पिघल पाया हूँ
वो कोई फूल या खा़ब था जाने क्या था वो
कुछ भी था उसे क़दमों तले कुचल आया हूँ
मुआफ़ रखो तुम मुझे मेरे इस गुनाह के लिए
मैं पीछे कहीं छोड़ यादों के सब जंगल आया हूँ
काँच के टुकड़ों की तरह तेरे खा़ब चुभते हैं
हूँ आँख का वो गुहर जो न आज तक सँभल पाया हूँ
पल ही भर में तुमने मेरा सब बदल दिया था
और मैं आज तक इन रंगों में न ढल पाया हूँ
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’