एक ख़लिश सफ़्हा-ब-सफ़्हा खुलती है
साँसों में मीलों तक गर्म रेत गलती है
दिल ख़्यालों की भीड़ में सबसे जुदा है
कशिश तेरी सीने में दर्द बनके जलती है
धोखा है धूप छाँव का वर्ना तफ़रका क्या
ज़िन्दगी दोनों राह एक-सी चलती है
साफ़ नज़र आता है शिगाफ़ हर दिल का
गुलाबी शाम नीली स्याही में ढलती है
दूदे-तन्हाई का है आँखों से मरासिम
मेरा किसी से नहीं बस यही बात खलती है
ऐ खु़दाया न हो हश्र मेरे जैसा और कभी
यह दुआ आठ पहर दिल से निकलती है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’