यह चंचल मन मेरा बड़ा अधीर है
भोर से बह रही वन में शीतल समीर है
व्याकुल हृदय की पीड़ा तुम क्या जानो
मन में आ लगा तेरे नयनों का तीर है
न पैरों में भूमि है न सर पे गगन है
पाँव में मेरे प्यार ने तेरे बाँधी जंज़ीर है
हाथ पढ़ेगा मेरा तब यह जानेगा कोई
इनकी लक़ीरों में बनती तेरी तस्वीर है
सावन में बदरा बरसे मन तरसे
अँखियों में भर-भर आया विरह का नीर है
लड़ियो भाग से जब तक तन में साँस रहे
मैं राँझा तेरा राँझणा तू मेरी हीर है
‘नज़र’ बावला जोगी हुआ तेरी प्रीत में
देख तू भी हाथों में उसके तेरी लक़ीर है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
2 replies on “यह चंचल मन”
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