नज़्म:
एक दिन मैं बिल्कुल अकेला
हमेशा की तरह तन्हा
सागर किनारे चट्टानों पर बैठा था
लहरें आ रही थीं
सागर किनारे की चट्टानों से टकराकर
लौट जा रहीं थीं,
पानी में गिरते सूरज के संग-संग
मंद-मंद पवन सागर की लहरों
पर तैरती दिख रही थी,
ये हसीन शाम किनारा
दूर तक फैला हुआ था, हमेशा की तरह
कुछ नहीं बदला सब वैसा ही है
पर आज आख़िरी चंद लफ़्ज़ों में
थोड़ा-सा फ़र्क़ नज़र आ रहा है
कि तुम मेरे साथ रू-ब-रू नहीं हो,
अफ़सोस नहीं है मुझे,
बस थोड़ा-सा दर्द महसूस होता है
सोचता हूँ…
‘गर तुम न होते तो क्या होता’
गीत:
सोचकर हैरानगी होती है अक्सर
गर तुम न होते तो क्या होता?
यह फूल न होते यह ख़ुशबू न होती
मधुवन न होता मोहब्बत न होती
ज़िन्दगी तन्हा अँधेरों में बसर होती
अगर हमसफ़र तेरा ख़्याल न होता
यह धड़कनें न चलतीं न उठतीं
दिल मेरा एक बेजान लाश होता
सोचकर हैरानगी होती है अक्सर
गर तुम न होते तो क्या होता?
कलियाँ न खिलतीं भौंरें न फिरते
शमा न जलती परवाने न मिटते
पत्तों पर यह हवाएँ न झूलतीं
किताबों में इश्क़ नाम न होता
कोई सच भी कहता किसी से
तो किसी को एतबार न होता
…गर तुम न होते तो क्या होता?
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२