छोटा-सा क़तरा था वक़्त से काटा था
जब तक वह रहा हर लम्हा रहा
जब वह नहीं तो कुछ भी नहीं,
न साँसों का वह हरा मौसम रहा…
आशियाँ रेत का लहरों में ढल गया है
मेरा लिखा हुआ काग़ज़ जल गया है
पत्तों से आती है पतझड़ की आहट
शाम बिछाती है रोज़ नयी चाहत…
छोटा-सा क़तरा था वक़्त से काटा था
रंगीन बादल था ख़ाबों का आँचल था
आँखों में वक़्त गुज़रने लगा है
यह लम्हा टूटने बिखरने लगा है…
बाँधूँ जो कभी गींठ खुल जाती है
साधूँ जो मैं डोर टूट जाती है
जाने कब मिले ज़िन्दगी से फ़ुर्सत
तू मिटा दे आप ही मौसमे-फ़ुर्क़त
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००१-२००२
2 replies on “छोटा-सा क़तरा था वक़्त से काटा था”
good, sorry I wanted to read more, say more but will come back here liked this poem
वाह ! क्या बात है !!