तह पर तह लगी है
कौन उतारेगा धूल पन्नों पर से
आँधियों में…
मैं खड़ा रहा साथ उसके
न उसने मुझको देखा
न मैंने उसको देखा
जब गुज़रा यह सिलसिला
तो पाया –
तह पर तह लगी है,
कौन उतारेगा धूल चेहरों पर से…
जो मुझसे…
आज भी अजनबी है
उसके दिल का संग1
मोम तो हो चुका है
मगर उसको अभी
किसी ने पिघलाया नहीं
जब भी पिघलेगा
चेहरा झुलस जायेगा
कौन हटायेगा मोम रुख़सारों पर से…
आँखें मूँद ली हैं उसने
मगर छिपती कब है रोशनी
उसने मुझको छूकर देखा है
मैंने उसको लिखकर
जब दोनों की निगाहों में
ख़राश की
तह पर तह लगी है
कौन उठायेगा शिकन निगाहों पर से…
मुझको डर है कि
वक़्त उसको मुतमइन2 न कर दे
वो बहुत कमज़ोर है
और न समझ भी
कि खु़दकुशी कर लेगा
तह पर तह लगी है
कौन उतारेगा धूल पन्नों पर से…
शब्दार्थ:
1. पत्थर, stone 2. संतुष्ट, calm
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३