क्यों खेलते हो? जल जाओगे!
इक आग है ‘विनय’
तरक़ीब पे तरक़ीब खेलते हो
कुछ और है ‘विनय’
तुमने अभी ‘विनय’ को जाना है
‘विनय’ के दर्द को नहीं
‘विनय’ इक आईना है टूटा हुआ
जिसमें जगह मौसमे-सर्द को नहीं
दूर रहने वाले भले ‘विनय’ से
क़रीब आने वालों को दर्द मिलता है
बरसते हैं आँसू जब भी
‘विनय’ इक मौसम ज़र्द मिलता है
चाहो तो दामन छोड़ दो ‘विनय’ का
चाहो तो घर आ जाओ…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३