दर्द से हमको क्या गिला है वो तो हमराज़ है
असलियत तो कुछ और है ये तो बस मिराज़ है
ज़िन्दगी एक हीरा है ये न लब तक आ जाये कहीं
ज़ुबाँ पे न ला नाम इसका ये मौत की हमराज़ है
छुपा-छुपा के अश्कों को पीना कहानी रह गया
हूक जो दिल से उठी तो रेत में दबा इक साज़ है
तेरे मरने का ग़म किसको होगा ऐ जाने अज़ीज
बस एक तेरे जीने पे ही सबको एतराज़ है
मेरे मसीहा को भी मज़ा है मेरे दर्दो-ग़म में
इसलिए ऐ ‘नज़र’ तुझको उम्र दराज़ है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००४