आँखों में भरा-भरा है
छँटता ही नहीं
किसी बीते हुए पल का कोहरा
कल का कोहरा
धुँधली नज़र आती हुई इमारतों में
किसी खिड़की के उस तरफ़
जो कोई चराग़ जलता दिखायी देता है
तो लगता है कि
तुम मुझे खड़ी देख रही हो
और इसके बाद
शीशे की तरह टूटकर वक़्त
पल-पल बिखरने लगता है
सोज़ की लौ सीने में
यादों का ईंधन सोखने लगती है
और कोहरा छँटने लगता है
फिर गीली भरी हुई आँखों से साफ़ दिखायी देता है
गुज़रा हुआ पल
मानी तेरी तस्वीर वो चंद साँसों के टुकड़े
साफ़-साफ़ लफ्ज़ों में कहूँ तो अधूरा प्यार
तुम्हारा प्यार…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’