बड़ी उदास दोपहर है, दिल भी ख़ाली
मेरा कमरा भी ख़ाली…
कुछ यादों का धुँधलाया हुआ-सा
एक क़ाफ़िला गुज़र रहा है,
आँख जो भर-भर आ रही है
किनारों की काई फिर सब्ज़ होने लगी है
इक दर्द फिर अँगड़ाई ले रहा है
एक आस फिर तेरी जुस्तजू कर रही है
माज़ी के सफ़्हे पलट रहा हूँ
बीती हुई शामों की नर्म धूप-
मेरा मन पिघला रही है,
बदन में फिर साँस भारी होने लगी है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १८/अगस्त/२००४