चेहरों की भीड़ में रहता हूँ इसलिए
कि तुम्हें ढूँढ़ सकूँ
अपनी जुस्तजू की मंज़िल पा सकूँ…
कोई तुम्हें भूल गया हो
या छुपा के रखा हो, तुम्हें सीने में
मैं तुम्हारे ग़म में मुक़द्दर बना हूँ…
मुझको पागल करने वाले
तेरा ये दीवाना आज भी तेरी उम्मीद में बैठा है
यह सच जानता हूँ…
कितने गुज़रते हैं
खिड़की पे सितारों की तरह
तू आये कभी चाँद जैसे यही चाहता हूँ…
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००३