दिल की लगी दिल को दिल से लगी
जब लगी यह आग फिर न बुझी
यह दिल की लगी है दिल से लगी है
जब यह लगी है फिर कहाँ बुझी है
उठता है तूफ़ाँ दिल में बनते हैं निशाँ
फैला हर दिशा यह यहाँ से वहाँ
बसा है दो दिलों में ख़ुशबू की तरह
नाम मुहब्बत है ख़ुदा की तरह
पतझड़ जाता है और सावन आता है
जब दिल में कोई उन्स जगाता है
दिल की लगी दिल को दिल से लगी
जब लगी यह आग फिर न बुझी
यह दिल की लगी है दिल से लगी है
जब यह लगी है फिर कहाँ बुझी है
चेहरे पर नज़रें रुकीं फिर पलकें झुकीं
होंठों पर नाम है आँखें सपने बुनती हैं
अफ़साने बनते हैं पन्ने भी खुलते हैं
मिटता है सब-कुछ ज़माने से सुनते हैं
कोहरे-से बिछते हैं दो दिल मिटते हैं
मोहब्बत के निशाँ बनते न मिटते हैं
दिल की लगी दिल को दिल से लगी
जब लगी यह आग फिर न बुझी
यह दिल की लगी है दिल से लगी है
जब यह लगी है फिर कहाँ बुझी है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: १९९८-१९९९