इक हुस्न मुझसे ज़रा मग़रूर है
कुछ ख़फ़ा-ख़फ़ा-सा है बहुत ही दूर है
वो अजनबी समझता है मुझे शायद
कहे कभी उसके दिल में कुछ ज़रूर है
ख़ानाए-दिल कब से रोशन नहीं हुआ
आज फिर देखा मेरी आँखों ने नूर है
नाज़नीं को नज़र सब तरक़ीबें ‘विनय’
कि नाज़ करना हुस्न का दस्तूर है
शायिर: विनय प्रजापति ‘नज़र’
लेखन वर्ष: २००२